अध्याय १०

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निकट ही एक युवान दंपत्ति अपने नन्हें बालक को उसकी इच्छानुसार वस्तु दिला रहे थे । पिता की भुजाओं में 'विराजमान' उस गोल-मटोल बालक ने अब अपनी छोटी-सी तर्जनी धातु से निर्मित एक लघु-अश्व (क्रीड़ा-वस्तु) की ओर उठाई जिस पर बालक की माता ने अश्व को हाथों में लेकर उसका निरीक्षण कर बालक की ओर बढ़ाया जिस पर बालक ने भी मुख पर हास्य लिए अपनी छोटी-छोटी कोमल भुजाएँ बढ़ाकर उस लघु आकार के अश्व को मुट्ठी में समेटना चाहा व उसे मुख से लगा देखने लगा ।

तर्ष बालक के निर्दोष मुख को बड़े ही प्रेम से देख रहा था । उसने युवक की ओर देखा जिसके नयन अब भी दूर जा रहे उस बालक पर टिके थे किंतु ऐसा था की इन नयनों में बालक के प्रति प्रेम अथवा मोह के स्थान पर स्वयं हेतु करुणा का भाव था ।

अग्रज (तर्ष) का हृदय द्रवित हो उठा । वह 'उसका' हाथ पकड़कर उसे खींचकर सड़क किनारे एक बड़ी व सुसज्जित मिस्ठान्न की दुकान पर ले आया । तर्ष ने भीतर जाते ही विक्रेता के समक्ष चाँदी की एक मुद्रा रखी व विभिन्न प्रकार के मिस्ठानों में से चुनकर एक उठाया, जिह्वा पर रखा, अधिक मीठा लगने पर विचित्र ढंग से मुॅंह बनाया । अन्य प्रकार का मिस्टान्न उठाया, स्वाद के अनुरूप होने पर विक्रेता से कहा,"इस प्रकार के छः दीजिए ।"

विक्रेता भी मुद्रा पाकर संतुष्ट था । वह शांत रहा व कहे गए शब्दों का पालन किया ।

दूसरी ओर वह युवक अब भी प्रवेश द्वार के बाहर श्वेत वस्त्रों से आच्छादित किसी प्रेमिका की भाँति ही सड़क किनारे खड़ा, दृष्टि के समक्ष आकार पड़ते दीपों के प्रकाश को देखते शांत था ।

'उसने' दीर्घ-श्वास भरकर निःश्वाश किया । दृष्टि जा पड़ी उस विशाल व विस्तृत चतुष्पथ के उस ओर स्थित, दो-चार निवासालयों से घिरी मौन सड़क पर जिस पर एक संगठित समूह जाता दिखाई दे रहा था । इस क्षेत्र की तुलना में उस पतली सड़क पर शून्य जन व अत्यल्प उजाला था सो ये समझना कठिन था की ये कौन थे ।

जब उनका आगमन किसी प्रकाश-स्रोत तले हुआ तो उनके द्वारा धारण किए हुए कवच किरणों से चमक उठे । यदि निकट हों तो उन सभी के कवच से उत्पन्न होती धात्विक ध्वनि व संगठित सामूहिक पदध्वनि भी सुनाई देती । उनकी वेशभूषा...वे योद्धा थे? यथार्थ उत्तर, वे राजकीय सैनिक थे । वही जो दोषी को बंदी बनाने हेतु गए थे ।

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